Natasha

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राजा की रानी

प्यारी बोली, “चाहे जो हो। तुम्हें नौकरी करने के लिए जब इतनी दूर जाना पड़ा- यह सब रहते हुए भी जब तुम्हारे किसी काम न आया, तब इसे बंकू को दे जाऊँगी।”

इस बात का जवाब मैं नहीं दे सका। खुली हुई खिड़की के बाहर अंधेरे में देखता हुआ चुपचाप बैठा रहा।

उसने फिर कहा, “इतनी दूर न जाओ तो न चले? यह सब क्या किसी भी दिन तुम्हारे किसी काम में नहीं आ सकता?”

मैं बोला, “नहीं, कभी, किसी दिन भी नहीं।”

प्यारी ने गर्दन हिलाकर कहा, “यह मैं जानती हूँ। परन्तु, ले चलोगे तुम मुझे अपने साथ?” इतना कहकर उसने मेरे पैरों पर फिर अपने हाथ रख दिये। एक दिन जब प्यारी ने मकान से जबर्दस्ती बिदा कर दिया था तब उस दिन का उसका असाधारण धीरज और मन की ताकत देखकर मैं अवाक् हो गया था। आज उसी की इतनी बड़ी दुर्बलता-करुण कण्ठ की ऐसी कातर मिन्नत। यह सब एक साथ याद करके मेरी छाती फटने लगी। परन्तु, किसी तरह भी राजी न हो सका। बोला, “मैं तुम्हें अपने साथ तो नहीं ले जा सकता, परन्तु, तुम जब बुलाओगी, तभी लौट आऊँगा। मैं कहीं भी रहूँ, हमेशा तुम्हारा ही रहूँगा राजलक्ष्मी।”

“क्या तुम चिरकाल तक इस पापिष्ठा के ही होकर रहोगे?”

“हाँ, चिरकाल तक।”

“तब तो फिर, यह कहो कि तुम्हारा कभी विवाह ही न होगा?”

“हाँ, नहीं होगा। इसका कारण यह है, कि तुम्हारी सम्मति के बिना, तुम्हें दु:ख देकर, इस काम में मेरी कभी प्रवृत्ति नहीं होगी।”

प्यारी अपलक दृष्टि से कुछ देर तक मेरे मुँह की ओर देखती रही। इसके बाद उसके दोनों नेत्र ऑंसुओं से परिपूर्ण होकर बड़ी-बड़ी बूँदों के रूप में टप-टप गिरने लगे। ऑंखें पोंछकर गाढ़े स्वर में वह बोली, “इस हतभागिनी के लिए तुम जिन्दगी-भर सन्यासी बने रहोगे?”

मैंने कहा, “हाँ, बना रहूँगा। तुम्हारे पास जो वस्तु मैंने पाई है, उसके बदले सन्यासी बनकर रहने में मेरा कोई नुकसान नहीं है। मैं कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरी इस बात पर तुम कभी अविश्वास न करना।”

पल-भर के लिए दोनों की चार नजरें हुईं और दूसरे ही क्षण वह तकिये में मुँह छिपाकर उलटी लेट गयी। उच्छ्वसित क्रन्दन के आवेग से उसका सारा शरीर काँप-काँपकर और फूल-फूलकर उचकने लगा।

मैंने मुँह उठाकर देखा, सारा मकान गहरी नींद से ढका हुआ था। कहीं कोई जाग नहीं रहा था। केवल एक दफे खयाल आया, कि झरोखे के बाहर अंधियारी रात्रि अपने कितने ही उत्सवों की प्रिय सहचरी प्यारी के इस हृदय-विदारक अभिनय को मानो आज चुपचाप, ऑंखें खोलकर, अत्यन्त परितृप्ति के साथ देख रही है।
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ऐसी-ऐसी अनेक बातें देखी हैं जिन्हें कि जीवन-भर भूला नहीं जा सकता। वे जब कभी याद आ जाती हैं तब उस समय के शब्द तक मानो कानों में गूँज उठते हैं। प्यारी के अन्तिम शब्द भी इसी तरह के थे। आज भी मैं मानो उनकी गूँज सुना करता हूँ। वह अपने स्वभाव से ही कितनी अधिक संयमी थी, इसका परिचय बचपन में ही उसने बहुत दफे दिया है। और फिर, उसके ऊपर अब कितने दिनों की सांसारिक अभिज्ञता है। उस दफे मेरे बिदा होने के समय किसी तरह भागकर उसने आत्म-रक्षा की थी। परन्तु इस दफे वह किसी तरह भी अपने आपको न सँम्हा्ल सकी, और नौकर-चाकरों के सामने ही रो पड़ी। रुँधे हुए कण्ठ से वह बोल उठीं, “देखों, मैं नासमझ नहीं हूँ। अपने पापों का भारी दण्ड मुझे भोगना ही पड़ेगा, सो मैं जानती हूँ; किन्तु, फिर भी कहती हूँ, हमारा यह समाज बड़ा निष्ठुर-बड़ा निर्दय है। इसे भी इसका दण्ड एक न एक दिन भोगना ही पड़ेगा। भगवान इस पाप की सजा देंगे ही देंगे!”

समाज को उसने क्यों इतना बड़ा अभिशाप दिया सो वह जाने और उसके अन्तर्यामी जानें। मैं नहीं जानता, सो बात नहीं है; किन्तु मैं चुप ही रहा। बूढ़ा दरबान गाड़ी का दरवाजा खोलकर मेरे मुँह की ओर देखने लगा। मैं आगे पैर बढ़ा ही रहा था कि प्यारी ऑंखों के ऑंसुओं में से मेरे मुँह की ओर देखकर कुछ हँसी; बोली, “कहाँ जा रहे जो? फिर तो शायद दर्शन होंगे नहीं, एक भिक्षा देते जाओगे?”

मैं बोला, “दूँगा, कहो।”

प्यारी बोली, “भगवान न करें- किन्तु, तुम्हारी जीवन-यात्रा जिस ढंग की है उससे-अच्छा, जहाँ भी रहो, ऐसे समय में खबर दोगे? शरमाओगे तो नहीं?”

“नहीं, शरमाऊँगा नहीं- खबर जरूर दूँगा” इतना कहकर धीरे-धीरे मैं गाड़ी में जा बैठा । प्यारी पीछे-पीछे आई और उसने अपने ऑंचल में मेरे पैरों की धूल ले ली।

“अजी सुनते हो?” मैंने मुँह उठाकर देखा कि वह अपने काँपते हुए होठों को प्राणपण से काबू में रखकर कहने की कोशिश कर रही है। दोनों की नजर एक होते ही फिर उसकी ऑंखों से झर-झर पानी झर पड़ा। वह अस्पष्ट रुँधे हुए कण्ठ से धीरे से बोली, “न जाओ इतनी दूर तो? रहने दो, मत जाओ...”

चुपके से मैंने अपनी नजर उस ओर से फेर ली। गाड़ीवान ने गाड़ी हाँक दी। चाबुक और चार-चकोंके सम्मिलित सपासप और घर-घर शब्द से शाम का समय मुखरित हो उठा। किन्तु, इस सबको दबाकर केवल एक रुँधे हुए कण्ठ का दबा हुआ रुदन ही मेरे कानों में गूँजने लगा।

3

पाँच-छ: दिन बाद मैं एक दिन भोर के समय, सिर्फ एक लोहे का ट्रंक और एक पतला-सा बिस्तर लेकर कलकत्ते के कोयला-घाट पर जा पहुँचा। गाड़ी से उतरते न उतरते खाकी कुरती पहिने हुए एक कुली ने दोनों चीजों को झपट लिया, उन्हें लेकर पलक-भर में न जाने वह कहाँ अन्तधर्न हो गया और जब तक खोजते-खोजते दुश्चिन्ता के मारे मेरी ऑंखों में ऑंसू न आ गये तब तक उसका कोई पता ही नहीं चला।

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